Saturday 5 March 2016

अभाव मे खुशियाँ या संपन्नता में:- 
मुझे याद आता है अपना बचपन , कैसे गुजारा होता था, कैसे पढ़ाई हुयी, किस प्रकार हम त्यौहार मानते थे। जब भी हमें कुछ छोटी सी छोटी भी चीज़ मिलती थी तो हमसे बड़ा शहँशाह कोई नहीं होता था, तीन लोग 5-5 पैसे मिला कर एक समोसे के तीन हिस्से कर के खाना  और आनंदित होना, पड़ोसी के अमरूद के पेड़ से चुराकर अमरूद खाने का आनंद अपने आप में अतुलनीय होता था, परिवार के साथ रामलीला देखने जाना, शादी ब्याह और होली- दिवाली मे नए कपड़े मिलना, जिसमें हमारी choice  की कोई जगह नहीं होती थी, केवल झोले से सबके कपड़े ही निकलते थे, ब्राउन किसका, ग्रे किसका यही बताया जाता था उसमें भी आनंद की सीमा नहीं थी। गुरुवार का चित्रहार और , रविवार की मूवी ( उसमें भी , अल्बर्ट पिंटों को गुस्सा क्यों आता है और पार जैसी आर्ट मूवी भी शामिल है  देखना  ) का उत्साह ही कुछ और था ।  
  इसके परिपेक्ष में आज का जीवन बिलकुल भिन्न है , आज  बड़ी बड़ी फाइव स्टार होटल्स की पार्टियां भी फीकी लगती हैं, पिज्जा बर्गर पासता मे भी वो स्वाद और संतुष्टि , जिधर गए उधर कोई शर्ट ले लेना , मल्टीप्लेक्स मे मूवी भी वो आनंद नहीं देती । 
अतः यह तय करने मे जरा भी संदेह नहीं है कि अभाव में ही खुशियाँ ज्यादा थी । 
      शायद मेरे जैसी ही लगभग आपकी भी कहानी होगी । आप भी अपनी कोई ऐसी ही खुशी को याद करके हम सबको बताएं -