हर्पीज
एक खतरनाक, अत्यंत पीड़ा देने वाला संचारी रोग है। यह मूलतः वाइरस/विषाणु जनित रोग है। यह एक प्रकार की चेचक होती है। इस रोग के वाइरस को हर्पीज
जोस्टर कहते हैं। यह तंत्रिकाओं को सीधे प्रभावित
करता है, इसी कारण इसका असर शरीर के किसी एक हिस्से , दाहिने या बाएँ तरफ होता है। तंत्रिकाओं पर प्रकोप के कारण यह अत्यंत पीड़ा
कारी होता है।
लक्षण - शरीर के किसी एक
ओर (दाहिने या बाएँ ) हिस्से में इसका प्रकोप होता है। प्रारम्भ में कुछ दानें गुच्छे
के रूप मे एक जगह होते हैं, दूसरे
दानों की अपेक्षा इसमें अत्यधिक पीड़ा, शूल और जलन होती है, जहां त्वचा पर इसका प्रकोप होता है उस हिस्से में जलन इतनी ज्यादा होती है
कि उस स्थान पर से ऊष्मा(गर्मी) निकलती हुई प्रतीत होती है, दर्द
भी गंभीर होता है और फिर यह फैलने लगता है, उस अंग में अकड़न, सूजन और लाली भी दिखने लगती है, शूल इतना गंभीर होता
है कि रोगी को कपड़े पहने में भी तकलीफ होती है , दर्द रात भर
सोने नहीं देता है। यदि प्रकोप पीठ और सीने पर है तो उस साइड से लेटना भी संभव नहीं
होता है। आगे पीछे दोनों ओर से बढ़ता है। बहुधा यह पीठ- सीने में या फिर चेहरे पर कान
से सिर कि ओर भी होता है। प्रारम्भ में अंधोरियों
जैसे दाने होते हैं, फिर दाने बढ़ते हुये छाले का रूप ले लेते
है , त्वचा एकदम लाल सुर्ख होती जाती है, यदि रोगी का इम्यून (रोग प्रतिरोधक क्षमता) सही होती है, तो यह 15 दिन तक कम से कम इसका प्रकोप रहता है। सही समय और सही चिकित्सा न
होने पर, कुछ रोगियों को यह दो तीन महीने या फिर कई कई साल तक
भी इसका प्रभाव देखा गया है। कुछ रोगियों की इसके प्रकोप से मृत्यु भी हुई है।अतः इस
रोग से पीड़ित व्यक्ति को शीघ्र ही विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए और बहुत संजीदा होकर
इलाज करना चाहिए।
रोकथाम - हर्पीज़ रोग पहचानते
ही यदि तुरंत ही चिकत्सा प्रारम्भ हो जाए तो पीड़ा को कम किया जा सकता है। विभिन्न चिकित्सा
पद्धतियों मे इसका इलाज किया जाता है, लेकिन स्थायी इलाज के बारे में मान्यता है की
होम्योपैथी में ही है। त्वरितपीड़ा से लाभ के लिए एलोपैथी इलाज कर सकते है। यदि किस
कारण से डॉक्टर से इलाज नहीं प्रारम्भ हो रहा हो तो निम्न कार्य करें -
1. दानों पर लगाने के लिए आसपास के किसी मेडिकल स्टोर से acyclovir salt युक्त क्रीम लेकर लगाएँ ।
2. रोगी के आसपास सफाई का विशेष ध्यान रखें।
3. बिना तेल मसाले का खाना दें, गर्म तासीर
का भोजन न दें , ठंडी चीजों का सेवन ज्यादा कराएं।
4. कपूर को आधा कप पानी में भिगो लें और नीम की पत्तियों से
बार बार प्रभावित स्थान पर छिड़काव करें
5. यदि त्वचा ज्यादा गर्म हो रही हो तो ठंडे पानी से एक दो बार
स्नान करा दें। (गर्मियों के मौसम में)
6. रोगी को खुले वातावरण में और ठंडे वातावरण में
रखें और तीमारदार को भी सफाई का विशेष ध्यान
रखना होता है। इन्फ़ैकशन से बचते हुये रोगी की सेवा करें , रोगी
के बिस्तर पर नीम की पत्तियाँ किसी एक साइड रख दें , रोगी के
कमरे में कपूर को सुलगाये, फिनयल से पोछा जरूर लगवाएँ ।
7. विटामिन -c युक्त आहार अधिक से अधिक दें ,मौसमी फल , मेवा ,दही और मोसम्मी
का रस का सेवन करने से शीघ्र लाभ होता है।
उपयुक्त प्रकार से
आप इस रोग के प्रकोप को संतुलित कर सकते हैं, फिर भी यह कम से कम 15 दिन
तक रोगी को बिलकुल भी चैन नहीं लेने देता है। रोग का प्रभाव कम होने पर काफी दुर्बलता होती है। अतः खानपान का विशेष ध्यान रखे और इलाज को ठीक होने
के बाद भी लगातार करें , स्थायी लाभ के लिए होम्योपैथी का इलाज
करें । मैं इस लेख को तब लिख रहा हूँ जब मैं खुद इस रोग से पीड़ित हूँ , आज लगभग 15 दिन और 80% लाभ के बाद
ही यह लेख लिखने का कारण यह है कि यदि कोई भी इस रोग के चपेट में आए तो कम से कम पीड़ा
में वह ठीक हो सके। इस लेख के बारे में अपनी राय comment बॉक्स
में जरूर लिखें।
महेंद्र श्रीवास्तव
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